शिक्षा क्या है?


Shiksha Kya Hai? Shiksha Ka Arth



शिक्षा क्या है, शिक्षा का अर्थ क्या है, और इसके बारे में पश्चिमी विचारकों, भारतीय विचारकों और भारतीय दर्शन प्रासंगिकता क्या है; इस लेख में हम जानेंगे...


'शिक्षा' क्या है? इस संबंध में विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों, दार्शनिकों, विद्वानों, विचारकों, राजनीतिज्ञों, नेताओं, व्यापारियों आदि ने अपने-अपने दृष्टिकोण से देशकाल के अनुसार इसके विषय में अपने मत प्रस्तुत किये हैं इसका कारण यह भी है कि शिक्षा शब्द भावनात्मक है और इसमें संचालन-शक्ति अधिक है।इसलिए कई युगों से इस शब्द के अनेक अर्थ उत्पन्न हो रहे थे तथा हो रहे हैं। अभी भी शिक्षा के बारे में दिए गए मत अधूरे हैं तथा उनकी इतिश्री नहीं हुयी है।


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इतना निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि शिक्षा के विषय में परिपूर्ण सर्वांगीण या सर्वमान्य परिभाषा शायद ही कभी दी जा सके। इसके अर्थ तथा उद्देश्य में गति है, सजीवता है जो सदा विकासशील तथा परिवर्तनशील बनी रहेगी।

मानव जीवन बहुत ही जटिल तथा प्रगतिशील है उसके जीवन में दो पहलू हैं- पहला शारीरिक तथा दूसरा है सामाजिक तथा सांस्कृतिक। इन दोनों पहलुओं के आधार पर ही उसका जीवन सँवरता है। शारीरिक विकास तथा दैनिक कार्य भोजन पर निर्भर है। परन्तु सांस्कृतिक तथा सामाजिक विकास के लिये शिक्षा की आवश्यकता होती है।
वास्तव में, शिक्षा ही जीवन की एक मुख्य प्रक्रिया है। जैसे-शारीरिक अर्थ में जीवन की कतिपय आवश्यक प्रक्रियाएँ होती हैं, वैसे ही सामाजिक अर्थ में भी शिक्षा के रूप में जीवन की एक आवश्यक प्रक्रिया है। सामान्य जीवन शिक्षा के बिना असम्भव है। शिक्षा ही मनुष्य सर्वांगीण विकास करती है। शिक्षा मानव जीवन को श्रेष्ठता की पराकाष्ठा तक ले जाती है और उसे महान बनाती है।
यहाँ हम शिक्षा पर भारतीय और पश्चिमी विचारकों के विभिन्न दृष्टिकोणों और विचारों को भी जानेंगे जिससे सपष्ट होगा कि शिक्षा क्या है। एक प्राकृतिक और एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में शिक्षा और एक जानबूझकर गतिविधि के रूप में शिक्षा को उपयुक्त चित्रण के साथ चर्चा की जाती है।
'शिक्षा' एक बहुत ही सामान्य और एक लोकप्रिय शब्द है जिसे हम में से बहुत से लोगों के द्वारा बोला जाता है लेकिन इसके सही परिप्रेक्ष्य में बहुत कम लोगों ने इसे समझा है यही कारण है कि लोगों के मन में एक प्रश्न हमेशा रहता है कि 'शिक्षा क्या है'। यह एक तरह से यह मानव जाति के जितना पुराना प्रतीत होता है, हालांकि समय के साथ -साथ इसके अर्थ और उद्देश्यों में निश्चित रूप से कुछ बदलाव आए हैं।
शिक्षा पाठ्यक्रम के छात्र के रूप में, और, भविष्य के शिक्षक के रूप में, आपको शिक्षा के अर्थ, इसकी वैचारिक विशेषताओं और दृष्टिकोण जो समय-समय पर इसके अर्थ को आकार देते हैं अलग-अलग समझना आवश्यक है। शिक्षा की अवधारणा और इसकी गतिशील विशेषताओं को समझने से आपको शिक्षक बनने के उद्देश्य के बारे में अंतर्दृष्टि विकसित करने और अपने छात्रों को शिक्षित करने में आपकी मदद करने में मदद मिलेगी।
शिक्षा ही अन्य सजीव प्राणियों को मानव से भिन्न करता है तथा उसका स्थान उच्चतम हो जाता है। इसी से मानव में मानवता विकसित होती है। शिक्षा के द्वारा नये विचारों और इसके आयामों का प्रस्फुटन होता है। इसी के द्वारा ही मानव अपनी बुद्धि तथा ज्ञान में वृद्धि करता है।

 

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अब हम जानेंगे शिक्षा का क्या अर्थ है….


शिक्षा का अर्थ (व्युत्पत्ति-विषयक)

शिक्षा शब्द की व्युत्पत्ति तथा उद्भव

व्युत्पत्ति के आधार पर शिक्षा शब्द के कई अर्थ हैं कई लोगों का मत है कि शिक्षा (Education) शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन के तीन शब्दों- Educare, Educere तथा Educatum से हुई है।
Educare का अर्थ है 'पालन-पोषण' और 'जागृत करना',
Educere का अर्थ है 'नेतृत्व करना' और 'बाहर निकालना'।
ये अर्थ दर्शाते हैं कि शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति के अच्छे गुणों का पोषण करती है और सबसे अच्छे गुणों को बाहर लाती है। शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति के अंतर्दृष्टि और आंतरिक शक्ति को विकसित करती है।

कुछ दूसरे शिक्षाशास्त्रियों के अनुसार शिक्षा शब्द की उत्पत्ति Educatum से हुई है जिसका अर्थ है 'शिक्षण अथवा प्रशिक्षण'।
यह अर्थ हमें बताता है कि शिक्षा एक पोषक वातावरण तैयार करता है जो किसी व्यक्ति के अंदर निहित शक्तियों को विकसित करता है और उसे बाहर लाता है।
शिक्षा का व्यापक अर्थ- जो शिक्षा बच्चे के जीवन काल तक निरन्तर चलती रहे, जो शिक्षा गर्भ से आरम्भ हो तथा मृत्यु तक चलती रहे, जो शिक्षा शैशवावस्था से परिपक्वता तक चलती रहे, वह शिक्षा व्यापक शिक्षा है। यह शिक्षा केवल पढ़ने, लिखने,और गणित तक ही सीमित नहीं रहती, इसमें व्यक्ति के सभी पक्षों का विकास साथ-साथ होता है।
इसमें बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है। इस दृष्टिकोण से शिक्षा स्कूल, शिक्षण तथा प्रशिक्षण तक ही सीमित नहीं, बल्कि बच्चा जीवन के सभी अनुभवों चाहे वो किसी भी वातावरण से प्राप्त हो। यह शिक्षा चाहे स्कूल के अन्दर हो या स्कूल के बाहर, स्कूल में भी यह शिक्षा कक्षा से कक्षा तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि पुस्तकालय, प्रयोगशाला तथा खेल के मैदान भी इसमें आते हैं। इसके अतिरिक्त घर समुदाय तथा समाज में भी जो संस्कार वह प्राप्त करता है, शिक्षा है।
"विस्तृत अर्थों में यह कहा जा सकता है कि मानव सभी प्रकार के अनुभवों से कुछ-न-कुछ सीख जाता है चाहे यह नकरात्मक हो या सकारात्मक हो। बालक कभी-कभी अपने माता-पिता को शिक्षा देता है तथा यदा-कदा शिष्य भी गुरु के ज्ञान में वृद्धि करता है।
विस्तृत अर्थ में हमारा जीवन ही शिक्षा है और शिक्षा ही जीवन है। जो बातें हमारे दृष्टिकोण को व्यापक करती हैं, आत्म-ज्ञान में वृद्धि करती हैं, हमारे प्रत्येक कार्य को सुसंस्कृत बनाती हैं तथा हमारे विचारों तथा अनुभवों की प्रेरणा प्रदान करती हैं- वास्तव में वही शिक्षा है। विस्तृत अर्थों में शिक्षा केवल बुद्धि तक सीमित नहीं है भावना तथा चरित्र का विधिवत् निर्माण भी इसके क्षेत्र में आते हैं।
गांधी जी ने भी कहा है कि "शिक्षा का मुख्य उद्देश्य चरित्र निर्माण होना चाहिए।


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शिक्षा के व्यापक अर्थ को कुछ विचारकों ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-


जे. एस. मेकेन्जी के अनुसार, "व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो आजीवन चलती रहती है और जीवन के प्रायः प्रत्येक अनुभव से उसके भंडार में वृद्धि होती है। शिक्षा को जीवन का मुख्य साध्य भी कहा जा सकता है।" 
मार्क हॉपकिन्स के अनुसार, "अपने अति व्यापक अर्थ में शिक्षा में वे सभी बातें आ जाती हैं जो निर्माणकारी प्रभाव डालती हैं।" 
प्रो. डम्बिल के अनुसार, "शिक्षा के व्यापक अर्थ में सभी प्रभाव आते हैं जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रभावित करते हैं।"
जॉन स्टूवर्ट मिल के अनुसार, “जो कोई बात मानव के निर्माण में सहायता देती है अथवा रुकावट डालती है वह उसकी शिक्षा का भाग है।"


शिक्षा का संकुचित अर्थ-


Shiksha Kya Hai? Shiksha Ka Arth

जो शिक्षा विद्यर्थियों को विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के वातावरण में दिया जाता है शिक्षा के संकुचित अर्थ में आता है। इसके अनुसार बच्चे की शिक्षा तब आरम्भ होगी जब वह स्कूल में प्रवेश लेगा तथा उस दिन समाप्त होगी जिस दिन वह अपनी पढ़ायी पूरी करने के पश्चात् विद्यालय या महाविद्यालय छोड़ देगा।
शिक्षा के संकुचित अर्थ में अध्ययन के विशेष पाठ्यक्रम होते हैं जिन्हें एक निश्चित समय में समाप्त करना होता है। इसके बाद परीक्षाओं द्वारा उसका मूल्यांकन होता है। यह शिक्षा औपचारिक रूप से नियन्त्रित वातावरण में दी जाती है। शिक्षा की रूप-रेखा पहले से ही तय कर दिया जाता है कि सारे वर्ष में कुल कितने पाठ्यक्रम होंगे, इस पाठ्यक्रम में कुल कितने विषय तथा सहगामी क्रियाएँ होंगी, कितने अध्यापक, कितने निश्चित समय में यह ज्ञान बच्चों को दिया जाएगा। शिक्षा में कौन-कौन सी विधियाँ प्रयोग की जाएँगी।


देखें..

शिक्षा का महत्व । शिक्षा की भूमिका


शिक्षा मनोविज्ञान


शिक्षा के संकुचित अर्थ के संबंध में कुछ विचारकों के मत-


प्रोफेसर ड्रीवर के अनुसार, "शिक्षा एक प्रक्रिया है, जिसमें तथा जिसके द्वारा बालक के ज्ञान, चरित्र तथा व्यवहार को एक विशेष सांचे में ढाला जाता है।"
जी. एच. थॉमसन के अनुसार, "शिक्षा एक विशेष प्रकार का वातावरण है जिसका प्रभाव बालक के चिन्तन, दृष्टिकोण तथा व्यवहार करने की आदतों पर स्थायी रूप से परिवर्तन करने के लिए डाला जाता है।"
जे. एस. मेकेन्जी के अनुसार, "संकुचित अर्थ में शिक्षा का अभिप्राय हमारी शक्तियों के विकास और उन्नति के लिए चेतनापूर्वक किए गए किसी भी प्रयास से हो सकता है।"
शिक्षा क्या है? इसकी क्या परिभाषा है। ऐसे तो यह प्रश्न बहुत आसान लगता है, क्योंकि शिक्षा एक ऐसा शब्द है जिसका हम नित्य जीवन में प्रयोग करते रहते हैं।परन्तु इसे किसी परिभाषा के सीमा में रखना आसान नहीं है। शिक्षा एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है।
प्रत्येक युग में जैसे-जैसे मानव की आवश्यकताएँ बदलती रहती हैं वैसे ही शिक्षा की विभिन्न परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं।
शिक्षा क्या है? इसे जानने के लिए हमें सबसे पहले हम जानते है कि शिक्षा क्या नहीं है? और दूसरा, शिक्षा केवल क्या नहीं है?
शिक्षा क्या नहीं है - शिक्षा चाहे जो कुछ हो, परन्तु यह साक्षरता (Literacy) नहीं हो सकती है। साक्षरता शिक्षा का साधन रूपी एक अंग तो हो सकता है। परन्तु साधन को साध्य नहीं माना जा सकता।साक्षरता से किसी व्यक्ति का मानसिक, नैतिक और सामाजिक विकास नहीं होता है। इससे केवल अक्षरों का ज्ञान मात्र हो सकता है जो  शिक्षा ग्रहण करने में सहायक की भूमिका में होता है।


शिक्षा केवल क्या नहीं है - शिक्षा एक बहुत व्यापक शब्द है। इसमें मानव जीवन के सभी पक्षों, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक तथा नैतिक आदि को शामिल किया जाता है। परन्तु कुछ व्यवस्थाएं ऐसी भी हैं जिसमें शिक्षा के एक भाग को ही शिक्षा समझते हैं। उदाहरण के लिए….


(क) प्राचीन समय में स्पार्टा (Sparta) के लोग 'शिक्षा क्या है' को इस प्रकार परिभाषित करते थे- "शिक्षा वह है जो व्यक्ति को प्राकृतिक प्रकोपों से बचाने की क्षमता प्रदान करती है।" इस परिभाषा का जन्म इसलिये हुआ कि स्पार्टा प्राचीन समय में एक यूनानी नगर राज्य था जो चारों ओर से शत्रुओं द्वारा घिरा हुआ था।


कभी किसी ओर से कोई शत्रु स्पार्टा पर आक्रमण करके लूट-पाट कर देता था तो कभी किसी दूसरे ओर से कोई अन्य शत्रु, अब इस स्थिति में उन्हें लगता था कि सुरक्षित रहने के लिए हृष्ट-पुष्ट बनने और अस्त्र-शस्त्र चलाने की प्रशिक्षण दी जानी चाहिए और इसी को लोगों ने शिक्षा मान लिया और यह परिभाषा सामने आया।


(ख) एक और मत 'शिक्षा क्या है' को कुछ इस प्रकार परिभाषित करता है- "शिक्षा वह है जो एक व्यक्ति को उसकी आजीविका कमाने में समर्थ बनाये", यह शिक्षा का आर्थिक पक्ष है। इस में कोई सन्देह नहीं कि यह पक्ष भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

मानव जीवन के बहुत से पहलू हैं जिनमे से आर्थिक पहलू सबसे अधिक तीव्रता से महसूस किया जाता है। आर्थिक आवश्यकताओं का पूरा करना मानव के लिये सब से आवश्यक कार्य है आर्थिक आवश्यकता मूल आवश्यकता है जिन पर उनकी सभी दूसरी आवश्यकतायें निर्भर हैं।


(ग) कुछ लोगों का विश्वास है कि शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उस देश की संस्कृति का संरक्षण, संचारण तथा समृद्धि है। जब व्यक्ति उपयोगी अनुभवों को आत्मसात् कर लेता है तो उसके जीवन में मधुरता आ जाती है।

जीवन को समृद्धिशाली बनाने के लिये व्यवहार तथा चरित्र की छोटी-छोटी बातें भी बहुत महत्त्व रखती हैं। इस प्रकार शारीरिक विकास, आर्थिक विकास या सांस्कृतिक विकास शिक्षा के बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं।


परन्तु शिक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से एक है, यदि कोई व्यक्ति शारीरिक तौर पर ही विकसित हो और उसका मानसिक, आर्थिक, सामाजिक तथा नैतिक विकास न हुआ हो तो हम उसे पूर्ण शिक्षित नहीं कह सकते। इसी प्रकार आज के इस भौतिक युग मे आर्थिक विकास, जीवन का प्रथम उद्देश्य है, क्योंकि आर्थिक आवश्यकताएँ सब से अधिक तीव्रता से महसूस की जाती हैं।


परन्तु आर्थिक पहलू भी मानव के बहुत से पहलुओं में से एक है और अकेले इस पहलू पर जोर देना उचित नहीं है। जैसे- पूंछ, पांव, खुर तथा कान इत्यादि गाय के शरीर के भाग हैं अकेले एक भाग को गाय नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार शिक्षा भी एक विस्तृत शब्द है। एक पक्ष को पूर्ण शिक्षा नहीं कहा जा सकता। इसलिये हमें शिक्षा की एक विस्तृत परिभाषा ढूंढ़नी होगी।


और अब हम जानेंगे कि शिक्षा किसे कहते हैं, शिक्षा की परिभाषा क्या है…..


शिक्षा की परिभाषा


भारतीय शिक्षाशास्त्रियों के विचार में शिक्षा क्या है ….


(1) महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, "शिक्षा मनुष्य के जीवन को समस्त विश्व के साथ सम्बन्ध स्थापित करती है।"


(2) कौटिल्य के अनुसार, "शिक्षा का अर्थ है देश के लिये प्रशिक्षण तथा राष्ट्र के लिये प्यार।"


(3) श्री अरबिंदो "अन्तर्निहित ज्योति की उपलब्धि के लिये शिक्षा विकासशील आत्मा की प्रेरणादायी शक्ति है।"


(4) स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, "मनुष्य में पहले से विद्यमान आध्यात्मिक तत्व की पूर्णता ही शिक्षा है।"


(5) महात्मा गांधी ने शिक्षा की परिभाषा इस प्रकार दी है-


Shiksha Kya Hai? Shiksha Ka Arth

"शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा उसकी आत्मा के सर्वोत्तम गुणों को व्यक्त करना है।"


(6) डा. जाकिर हुसैन ने शिक्षा को सम्पूर्ण जीवन का कार्य माना है यह जन्म से लेकर मृत्यु तक जारी रहता है।


7) ऋगवेद के अनुसार, "शिक्षा मनुष्य को आत्मविश्वासी तथा स्वार्थहीन बनाती है।"


(8) उपनिषद् के अनुसार, "शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण है।"


(9) विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के शब्दों में, "भारतीय परम्परा के अनुसार शिक्षा केवल आजीविका कमाने का साधन नहीं है, न ही यह नागरिकता की शिक्षा का साधन है। यह आध्यात्मिक जीवन का आरम्भ है, यह सत्य की प्राप्ति तथा नेकी के अभ्यास के लिये मानवीय-आत्मा का प्रशिक्षण है यह दूसरा जन्म या द्वितीय जन्म है। "


पाश्चात्य विचारकों की परिभाषा….


(1) टी.पी. नन के अनुसार, "शिक्षा बच्चे के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है ताकि वह अपनी सर्वोत्तम योग्यता के अनुसार मानव जीवन में अपना मौलिक योगदान दे सके"।


(2) रस्किन के अनुसार, "शिक्षा का अर्थ मनुष्य को वह सिखाना नहीं है जो उसे नहीं आता है। इसका अर्थ उसे व्यवहार सिखाना है जो वह नहीं करता।"


(3)जेम्स के अनुसार, "शिक्षा कार्य सम्बन्धी अर्जित आदतों का संगठन है, जो व्यक्ति को उसके भौतिक तथा सामाजिक वातावरण में उचित स्थान देती है।"

 

(4) पेस्टालोजी- पेस्टोलोजी ने शिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार देने का प्रयास किया है। उसके अनुसार, "शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का प्राकृतिक, सु-सामंजस्यपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।


(5) बोसिंग के अनुसार, "शिक्षा का कार्य मनुष्य का उसके वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करना है जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का स्थायी सन्तोष प्राप्त हो सके।"


(6) फ्रोबेल के अनुसार, "बीज में जो विद्यमान है, उसे खोलना ही शिक्षा है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा अपनी वास्तविक योग्यताओं को बाह्य रूप प्रदान करता है"।


(7) जॉन डीवी के शब्दों में, "शिक्षा व्यक्ति की उन सभी योग्यताओं का विकास है जो उसे अपने वातावरण पर नियन्त्रण करने व अपनी भावनाओं को पूरा करने में योग्यता प्रदान करती है।"


(8) रेडन के अनुसार, "शिक्षा का प्रभाव है जो परिपक्व व्यक्ति सोच-समझ कर व्यवस्थित ढंग से अपरिपक्व पर डालता है। यह प्रभाव व्यक्ति और समाज की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण अनुशासन तथा व्यक्ति की शारीरिक, बौद्धिक, सौन्दर्यात्मक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों को इसी क्रम में सामंजयस्यपूर्ण विकास द्वारा डाला जाता है। इस प्रभाव का अन्तिम उद्देश्य, विद्यार्थी का ईश्वर के साथ सम्बन्ध स्थापित करना है।"


यह शिक्षा की कुछ विस्तृत परिभाषाएँ हैं। इन में से कुछ मुख्य परिभाषाओं का हम विश्लेषण करते हैं।


उदाहरण के तौर पर पेस्टालोजी की परिभाषा लीजिए उसके अनुसार "शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का प्राकृतिक सु-सामंजस्यपूर्ण और प्रगतिशील विकास है।"


यदि इस परिभाषा का ध्यान से अध्ययन किया जाए तो इसमें से चार शब्दों का विश्लेषण करना आवश्यक होगा।


(1) आन्तरिक शक्तियाँ (Innate powers) 

(2) प्राकृतिक विकास (Natural Development)

(3) सु-सामंजस्यपूर्ण विकास (Harmonious Development) 

(4) प्रगतिशील विकास (Progressive Developments)


(1) आन्तरिक विकास- हर बच्चे के अन्दर कुछ जन्मजात शक्तियों होती हैं जिन्हें हम प्रवृत्तियाँ भी कहते हैं। ये प्रवृत्तियाँ उसे प्रशिक्षण द्वारा प्राप्त नहीं होती, बल्कि जन्म से ही उसके अन्दर होती हैं जैसे जिज्ञासा प्रवृत्ति, इकट्ठा रहने की प्रवृत्ति, लड़ने की प्रवृत्ति तथा अपनी प्रशंसा सुनने की प्रवृत्ति इत्यादि ।


उदाहरण के तौर पर प्रत्येक बच्चा अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है। दूसरों के साथ मुकाबला करके जीतना चाहता है अकेले के स्थान पर समाज में रहना चाहता है। उसके अन्दर प्रकृति के भेद जानने की जिज्ञासा होती है। इसी प्रकार उचित समय आने पर लिंग प्रवृत्ति अपने-आप उसमें जाग्रत हो जाती है। शिक्षक के लिये यह आवश्यक है कि वह इन प्रवृत्तियों को समझे और बच्चे की शिक्षा इन प्रवृत्तियों को आधार बना कर दें। शिक्षण-विधियाँ, पाठ्यक्रम तथा अनुशासन आदि इन प्रवृत्तियों को आधार बना कर ही होना चाहिए।


2) प्राकृतिक विकास-


Shiksha Kya Hai? Shiksha Ka Arth


प्राकृतिक विकास में हम यह अध्ययन करते हैं कि जन्म से प्रौढ़ होने तक बच्चा कई चरणों में से गुजरता है जैसे शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था। इन सभी अवस्थाओं की अपनी-अपनी विशेषताएं होती है। उदाहरण के लिए पर बाल्यावस्था की मुख्य विशेषता खेलना है।


एक सामान्य बच्चा खेलना अवश्य पसन्द करेगा तथा जो बच्चा खेलने में रुचि नहीं रखता, समझ लीजिए कि वह बच्चा सामान्य बच्चा नहीं है। इसी प्रकार किशोरावस्था में लिंग प्रवृत्ति विद्यमान होती है। अध्यापक को इन प्रवृत्तियों की जानकारी होनी चाहिए और इन प्रवृत्तियों को आधार बना कर उनका उन्नयन करके विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। इसीलिए शिक्षा के खेल-विधि को बहुत महत्त्व दिया गया है।


क्योंकि बच्चा खेलना चाहता है इसलिए खेल को प्राथमिकता दी जाए तथा शिक्षा तो केवल इसका परिणाम है।

इसी प्रकार नृत्य, कला, संगीत आदि लिंग प्रवृत्ति का उन्नयन है। अध्यापक को इस बात को याद रखना चाहिए कि विकास के मामले में जब भी बच्चा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तो यह विकास स्वभाविक होना चाहिए।

जब तक बच्चे ने एक अवस्था की विशेषताओं का पूरा अनुभव नहीं कर लिया, दूसरी अवस्था में जाने से उसका विकास स्वभाविक नहीं होगा। दूसरी अवस्था पहली अवस्था में से विकसित होनी चाहिए। किसी भी चरण या अवस्था को बिल्कुल नहीं छोड़ना चाहिए।


कई बार माता-पिता या अध्यापक अपने बच्चे को जल्दी से जल्दी प्रौढ़ बनाना चाहते हैं। इसलिए बाल्यावस्था से सीधा उसको प्रौढ़ावस्था में लाना चाहते हैं तथा इसके लिये प्रयत्न करते हैं चाहे बालक आयु तथा आकृति से बालक है। परन्तु उसका दृष्टिकोण, व्यवहार सोचने का ढंग प्रौढ़ों जैसा बनाने का यत्न करते हैं।


परन्तु ऐसे बच्चे सामान्य नहीं हो सकते। इनकी तुलना तो समय से पहले पक्के हुए फल या  बौनों  से की जा सकती है। कई बार लोग कच्चे फल को भूमि से उठाकर पकाने का यत्न करते हैं। परन्तु ऐसे फल में न तो मिठास होती है न ही सुगंध तथा न ही स्वाद होता है।


इसी प्रकार बौने कद में तो बच्चे परन्तु चेहरों से प्रौढ़ लगते हैं और इसीलिये वे सामान्य नहीं होते तथा लोग उनको देख कर हँसते हैं। इसी प्रकार यदि समय से पहले किसी बच्चे को प्रौढ़ बनाने का यत्न किया जाता है तो वह असामान्य होगा।


(3) सु-सामंजस्यपूर्ण विकास- व्यक्तित्व के कई पहलू होते हैं जैसे शारीरिक, आर्थिक, मानसिक, सामाजिक इत्यादि।किसी एक बच्चे में सभी पक्षों का अधिकतम विकास नहीं किया जा सकता। अर्थात् कोई एक ऐसा बच्चा नहीं हो सकता जिसका दिमाग आइंस्टीन के समान, करुणा महात्मा बुद्ध के समान हो और धन मुकेश अम्बानी जितना हो।इसलिये बच्चे का जीवन लक्ष्य देखते हुए उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू उचित मात्रा में हों तो हम उसे सु-सामंजस्यपूर्ण विकास कहेंगे।


(4) प्रगतिशील विकास- मानव जीवन के कई स्तर होते हैं जैसे प्रवृत्ति स्तर, तार्किक स्तर, ज्ञान स्तर, बौद्धिक स्तर तथा अध्यात्मिक स्तर इत्यादि। प्रगतिशील विकास का अर्थ प्रवृत्ति स्तर से अन्तिम स्तर तक पहुंचना है। उसे पशु स्तर से ऊपर उठाते हुए आध्यात्मिक स्तर तक पहुंचाना है।


जब बच्चा जन्म से अपनी प्रवृत्तियों का गुलाम होता है। उसका समस्त व्यवहार प्रसन्नता और पीड़ा पर निर्भर होता है।शिक्षा सब से पहले तो उसके अन्दर तार्किकता उत्पन्न करती है अर्थात् तार्किक शक्ति का विकास करती है तथा बाद में अध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है इसे ही प्रगतिशील विकास कहते हैं।


महात्मा गांधीशिक्षा की परिभाषा का विश्लेषण

गांधी जी की शिक्षा की परिभाषा इस प्रकार है, "शिक्षा से मेरा अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जो बालक तथा मनुष्य के शरीर, मन तथा उसकी आत्मा के सर्वोत्तम गुणों की अभिव्यक्ति करती है"


(1) बाहर निकालना (To Draw out)-यदि यह जानने की कोशिश किया जाए कि शिक्षा (education) शब्द कहाँ से उत्पन्न हुआ है जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा है यह शब्द एजुकेशन इन Educatum, Educare तथा Educere तीनों लैटिन शब्दों में से किसी एक से निकला है।


एजुकेटम (Educatum) का अर्थ है शिक्षा अथवा प्रशिक्षण का कार्य।


ऐजुकेयर का अर्थ है लालन-पालन इस प्रकार एजुकेयर (Educare) नहीं हो सकता, क्योंकि लालन-पालन बाहर से होता है तथा


एजुकियर (Educere) का अर्थ है बाहर निकालना या नेतृत्व करना।

शिक्षा एजुकेटम भी नहीं सकता क्योंकि एजुकेटम तो शिक्षा प्रदान करने की केवल एक विधि है।


इसलिए शिक्षा का वास्तविक अर्थ educere ही है जिसके अर्थ से गुणों को बाहर निकालने का भाव प्रकट होता है।


स्वामी विवेकानन्द ने कहा है "ज्ञान बच्चे के अन्दर विद्यमान है"।


फ्रोबल ने लिखा है, "शिक्षा बच्चे के अन्दर निहित है उसे व्यक्त करना है"।


इसे बाहर निकालना शिक्षा का कार्य है। ज्ञान तथा शिक्षा की तुलना बीज तथा वृक्ष से भी की जा सकती है जैसे वृक्ष बीज के अन्दर निहित है, परन्तु यह व्यक्त तभी होगा, जब कुछ समय तक माली इसमें पानी तथा खाद दे और इसे उचित वातावरण प्राप्त हो। इस प्रकार ज्ञान तो बच्चे के अन्दर जन्मजात है। शिक्षा का काम है उसे बाहर निकालना। 


(2) सर्वोत्तम प्रवृत्तियाँ नैतिक नहीं होती। इसका अर्थ यह नहीं कि ये अनैतिक होती हैं ये न नैतिक होती हैं न अनैतिक, उदाहरण के तौर पर यदि कोई व्यक्ति ईमानदार है तो उसके अन्दर नैतिकता है। यदि वह बेईमान है तो वह अनैतिक है।
परन्तु जब वह दूध पीता है तो इस काम में नैतिकता तथा अनैतिकता आती ही नहीं। बच्चे के भीतर निहित प्रवृत्तियाँ न अपने आप में अच्छी है न बुरी, यह तो उनका प्रयोग है जो उनको अच्छा या बुरा बनाता है।
उदाहरण के तौर पर बच्चे में लड़ने की प्रवृत्ति है यदि वह रोगों, अज्ञानता तथा रूढ़ियों के विरुद्ध लड़ता है तो यह लड़ना अच्छा है। परन्तु यदि वह अपने माता-पिता, अध्यापकों या सहपाठियों के साथ छोटी-छोटी बातों के लिये लड़ता है तो यह प्रवृत्ति बुरी मानी जायेगी।
यदि एक विद्यार्थी में प्रकृति के भेद जानने की जिज्ञासा है तो यह प्रवृत्ति अच्छी है।परन्तु यदि वह हमेशा यह जानने का प्रयास करता रहता है कि उसके पड़ोसी कब-कब क्या कर रहे हैं, उनके घर कौन आता-जाता है तो यह प्रवृत्ति खराब मानी जायेगी।
गांधी जी के अनुसार इन प्रवृत्तियों को अच्छे रूप में ही विकसित करना चाहिए।
'वाट्सन'  एक बहुत प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हुआ है जो वंशज से वातावरण को अधिक आवश्यक मानता है।
उसने एक स्थान पर लिखा है कि "मुझे कोई सा भी छोटा सा बच्चा दे दो, मैं उस कुछ ही वर्षों में संसार का कुख्यात डाकु या विख्यात सन्त बना सकता हूं"। और बच्चा सन्त बनेगा या डाकू, इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी प्रवृत्तियों का प्रयोग अच्छे ढंग से हुआ या नहीं।
इसलिए यदि गांधी की परिभाषा का विश्लेषण करें तो यही कहेंगे कि गांधी के अनुसार बच्चे और आदमी के व्यक्तित्व के सभी गुणों का सर्वोत्तम विकास किया जाए और यह तभी हो सकता है यदि उसकी प्रवृत्तियाँ अच्छी दिशाओं में से प्रवृत्त की जा रही हैं।


टैगोर द्वारा शिक्षा की परिभाषा का विश्लेषण- 

टैगोर के अनुसार, "शिक्षा उस अन्तिम सच्चाई को ढूंढना है जो हमें गर्द के जीवन के बन्धनों छुटकारा दिला दे तथा हमें धन दे. चीजों का नहीं, बल्कि आन्तरिक प्रकाश का, शक्ति का नहीं, बल्कि प्यार ताकि हम इस सच्चाई को जान लें और इसे अपने जीवन में कार्यान्वित करें"।
यदि टैगोर की शिक्षा की इस परिभाषा का विश्लेषण करें तो हम जान पायेंगे कि मानव अस्तित्व दो प्रकार का होता है- एक भौतिक तथा दूसरा आत्मिक, टैगोर के अनुसार भौतिक स्तर आत्मिक स्तर से बहुत नीचा होता है। सिर्फ धन अर्जित करना और उसे व्यय करना, यह निम्न स्तर के लोगों का कार्य है जब व्यक्ति इस स्तर से ऊंचा उठ कर अपना आत्मिक विकास करता है, यही सब से अधिक आदर्श शिक्षा है।
इस आदर्श को सिर्फ जानना ही आवश्यक नहीं, इसे अपनी दिनचर्या में भी अपनाना होगा और कार्यान्वित करना होगा।
शिक्षा के अर्थ की विशेषताएँ
शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है।  इसके अर्थ में समयानुसार परिवर्तन हुए हैं। विभिन्न विद्वानों तथा शिक्षा-शास्त्रियों ने शिक्षा के प्रति कई विभिन्न विचार प्रकट किये हैं जिनकी विवेचना करने से यह साफ हो जाता है कि शिक्षा न तो ज्ञान अथवा प्रशिक्षण का पर्याय है और न ही इस का प्रयोग ज्ञान की शाखा विशेष अथवा अनुशासन के लिए करना उचित है। शिक्षा ही मनुष्य की जन्मजात शक्तियों के विकास एवं ज्ञान तथा कला-कौशल में वृद्धि तथा व्यवहार में परिवर्तन करने वाली सामाजिक प्रक्रिया है।
शिक्षा प्रक्रिया के रूप में भी इसे व्यापक अर्थ में स्वीकार करना चाहिए। स्पष्ट है कि शिक्षा मनुष्य के जीवन भर चलती है जिसमें विद्यार्थी जीवन इस का केवल एक भाग है।
संसार का प्रत्येक प्राणी अपनी जाति के प्राणियों के साथ रह कर अनुकरण द्वारा उनके अनुसार चलना-फिरना, खाना-पीना तथा बोलना सीखता है। पशु-पक्षियों के सीखने की प्रक्रिया सिर्फ परिस्थितियों के अनुसार समायोजन कर आत्म-रक्षा के कार्यो तक सीमित रहती है।
परन्तु मनुष्य की शिक्षा उसे केवल परिस्थितियों के साथ समायोजन करना ही नहीं सिखाती, अपितु उसमें अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करने की क्षमता का भी विकास करती है। विकास करना सम्पूर्ण मानव जाति का लक्ष्य है। इस प्रकार मनुष्य की शिक्षा दूसरे प्राणियों से अलग होती है तथा इस प्रक्रिया में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं
(1) शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है- व्यापक तथा संकुचित दोनों अर्थों में शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है।मनुष्य की जन्मजात शक्तियों विकास प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण होता है और इसके फलस्वरूप ही मनुष्य के आचार-व्यवहार में परिवर्तन होता है।
मनुष्य की  संस्कृति तथा सभ्यता का विकास उसके सामाजिक पर्यावरण में ही होता है। सामाजिक पर्यावरण के अभाव में शिक्षा की प्रक्रिया संभव नहीं है। समाज के अभाव में न भाषा सीख सकते हैं और न विचार करना।
(2) शिक्षा निरन्तर प्रक्रिया है- संकुचित अर्थ में शिक्षा केवल विद्यालयी जीवन तक ही सीमित होती है परन्तु अपने वास्तविक अर्थ में यह आजीवन चलती रहती है।अधिक व्यापक दृष्टिकोण से देखें तो व्यक्ति समाप्त होते रहते हैं परन्तु उनकी शिक्षा की प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। इस प्रकार निरन्तरता उसकी दूसरी विशेषता है।
(3) शिक्षा विकास की प्रक्रिया है- मनुष्य का जन्म कुछ शक्तियों के साथ होता है। उसका जन्मजात व्यवहार पशु के समान होता है। सामाजिक पर्यावरण में उसके इस व्यवहार में परिवर्तन होता रहता है। मनुष्य अपने अनुभवों को भाषा के माध्यम से सुरक्षित रखता है तथा उनको आने वाली पीढ़ी को सौंप देता है। आने वाली पीढ़ी इस ज्ञान के आधार पर आगे बढ़ती है और इस में अपने अनुभव और विचार जोड़ देती है।
जान डीवी के जनुसार, "शिक्षा अनुभवों के निरन्तर पुनर्निर्माण द्वारा जीवित रहने के लिए प्रक्रिया है। शिक्षा अनुभव द्वारा अनुभव के लिये और अनुभव से सम्बन्धित होती है अनुभव ही सच्चे ज्ञान का एक मात्र साधन होता है अनुभव से अन्य अनुभव प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अनुभव का संशोधन, पुनर्गठन तथा निर्माण होता है। अनुभव की यह प्राप्ति ही शिक्षा है"।
 
(4) शिक्षा गतिशील प्रक्रिया है- शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी सभ्यता या संस्कृति में निरन्तर विकास करता है। इस विकास के लिये उसकी एक पीढ़ी अपने ज्ञान तथा कला कौशल को दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है। इस हस्तान्तरण के लिये प्रत्येक समाज विद्यालयी शिक्षा का नियोजन करता है। प्रत्येक समाज के परिवर्तन के साथ-साथ उसकी शिक्षा का पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधियों में भी परिवर्तन होता रहता है।
कोई भी शिक्षा सामाजिक परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ती है यही उसकी गतिशीलता है। यदि शिक्षा गतिशील न होती तो हम विकास के पथ पर अग्रसर न हो पाते।
(5) शिक्षा द्वि-मुखी प्रक्रिया है- प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री एडम्स ने शिक्षा को द्वि-मुखी प्रक्रिया माना है। इनके कथनानुसार, "शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है जिस में एक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व द्वारा दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है जिससे उसके व्यवहार में परिवर्तन हो जाए।"
एडम्स आगे लिखता है कि शिक्षा की प्रक्रिया केवल सचेतन ही नहीं, परन्तु विचारपूर्ण भी है। इस में शिक्षक का एक स्पष्ट प्रयोजन होता है। वह उसी के अनुसार बालक के व्यवहार में परिवर्तन करता है।
वे साधन जिनके द्वारा बालक के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है, दो हैं- (1) शिक्षक के व्यक्तित्व का बालक के व्यक्तित्व पर प्रभाव (2) ज्ञान के विभिन्न अंगों का प्रयोग।
रास ने भी शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया माना है। उसके अनुसार, "शिक्षा में भी चुम्बक के समान दो ध्रुवों का होना आवश्यक है, इसलिये शिक्षा द्विमुखी प्रक्रिया है।"
शिक्षा की द्विमुखी प्रक्रिया में दो केंद्र होते हैं (1) शिक्षक। (2) शिष्य।
दोनों के कार्यों का समान महत्त्व है। दोनों के कार्यों का एक दूसरे से सम्बन्ध होता है। फलस्वरूप दोनों में परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है। आपसी सहयोग के बिना वे अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकते।
शिक्षक अपने व्यक्तित्व तथा ज्ञान के प्रभाव से बालक के व्यवहार में परिवर्तन तथा सुधार करता है जिसमें बालक का समरूपी विकास होना आरम्भ होता है।दोनों के सहयोग से शिक्षा की प्रक्रिया चलती रहती है।
शिक्षा की प्रक्रिया को अनवरत जारी रखने के लिये शिक्षक तथा शिष्य को एक दूसरे का ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षक को शिष्य की क्षमताओं, रुचियों तथा स्तर का ज्ञान होना चाहिए और शिष्य को शिक्षक के स्तर का। इसके बिना शिक्षा लेने तथा देने का कार्य नहीं चल सकता। 
(6) शिक्षा त्रिमुखी प्रक्रिया है - प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री जॉन डीवी ने शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया माना है।
यह सत्य है कि जान डीवी ने भी एडम्स की तरह शिक्षा को एक प्रक्रिया माना है। परन्तु दोनों शिक्षा-शास्त्रियों के विचारों में अन्तर है।
जहाँ एडम्स ने शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक तथा बालक को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए केवल मनोवैज्ञानिक पक्ष पर जोर दिया है। वहीं, जान डीवी ने शिक्षा के मनोवैज्ञानिक पक्ष को स्वीकार तो किया परन्तु उसने अधिक जोर सामाजिक पक्ष पर दिया है।
जॉन डीवी का कहना है कि यह बिल्कुल ठीक है कि बालक को शिक्षित करने के लिये उसकी जन्मजात शक्तियों का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है, परन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज से अलग रह कर बालक की शिक्षा नहीं हो सकती।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज में रह कर ही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसके फलस्वरूप वे सामाजिक प्राणी बनते हैं। अतः शिक्षा की प्रक्रिया के तीन ध्रुव निम्नलिखित हैं (क) शिक्षक। (ख) बालक/शिक्षार्थी (ग) सामाजिक वातावरण।
(क) शिक्षक- शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक का विशेष महत्त्व है। अच्छा शिक्षक अपने व्यक्तित्व से बालक को प्रभावित करता है।
वह बालकों की स्वतन्त्र प्रगति और उनके विकास में सहायता करता है। वह बालकों को सत्य की ओर बढ़ने तथा उसकी प्राप्ति के लिए अपने व्यक्तित्व का विकास करने की प्रेरणा देता है तथा इस के लिये क्षमता प्रदान करता है।
शिक्षा के उद्देश्यों में एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र का निर्माण भी करना है।इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षक के व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस दृष्टि से अध्यापक का चरित्र उच्च कोटि का होना चाहिए।
बालक स्वभाव से ही अपने अध्यापक का अनुकरण करता है। अतः यदि शिक्षक अच्छे चरित्र वाला होगा तो विद्यार्थी में अच्छे गुण स्वयं ही आ जाएँगे अतः शिक्षक को चरित्रवान होना चाहिए।
शिक्षक को सच्चरित्र होने के साथ-साथ अपने विषयों का पूर्ण तथा अन्य विषयों का सामान्य ज्ञान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसको शिक्षण की आधुनिक विधियों का भी ज्ञान होना चाहिए। राल्फ हारपर ने कहा है,"अभिनय समाप्त हो जाता है तथा सुनने वालों के पास केवल शिक्षक का सत्य तथा उसके विद्यार्थियों के प्रति बना हुआ दृष्टिकोण ही शेष रह जाता है।"
(ख) बालक (शिक्षार्थी)- शिक्षा का दूसरा ध्रुव शिक्षार्थी है। मनोविज्ञान का विकास हो जाने के कारण आधुनिक विचारधारा में शिक्षार्थी का भी बहुत बड़ा महत्त्व स्वीकार किया गया है। समस्त शिक्षा बच्चे के लिये है, बच्चा शिक्षा के लिये नहीं है। अतः शिक्षा बाल-केन्द्रित होनी चाहिए तथा उसकी प्रक्रिया बालकों की रुचियों, अभिरुचियों, क्षमताओं तथा मनोवृत्तियों पर आधारित होनी चाहिए।


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अतः शिक्षक को बालक को सच्चे अर्थो से शिक्षित करने के लिए उसकी रुचियों, अभिरुचियों तथा मनोवृत्तियों का विकास करना चाहिए। अतः शिक्षक को अपने विषय का ज्ञान होने के साथ-साथ बालक का भी पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। शिक्षक को बालक का ज्ञान बाल-मनोविज्ञान द्वारा ही हो सकता है। आधुनिक शिक्षा में बाल-केन्द्रित शिक्षा पर हो बल दिया जाता है।


(ग) सामाजिक वातावरण- सामाजिक वातावरण शिक्षा का तीसरा ध्रुव है। व्यक्ति समाज में रहकर ही अपना विकास करता है। अतः व्यक्तिगत विकास के लिए समाज का विकास आवश्यक है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। समाज से अलग रहकर बालक की शिक्षा हो ही नहीं सकती। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज के सम्पर्क में आकर ही शिक्षा प्राप्त करता है।


इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि समाज के द्वारा ही बच्चे सामाजिक प्राणी बनते हैं। समाज के द्वारा ही बच्चों में सामाजिक कुशलता, आचरण तथा सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सकता है। सामाजिक वातावरण के माध्यम से ही शिक्षक तथा शिक्षार्थी को विषय-सामग्री मिलती है।

इस विषय-सामग्री को हम विस्तृत अर्थ में पाठ्यक्रम कहते हैं। अतः सामाजिक वातावरण शिक्षा प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

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(7) शिक्षा प्रशिक्षण का कार्य करती है- शिक्षा व्यक्ति के लिये प्रशिक्षण का कार्य करती है। प्रत्येक मानव को अपनी भावनाओं, व्यवहार तथा अभिलाषाओं के सम्बन्ध में प्रशिक्षण की आवश्यकता है। ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त करके ही वह समाज का उत्तरदायी सदस्य बन सकता है। उसका यह प्रशिक्षण शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। इस प्रशिक्षण के बिना वह नैतिक तथा व्यवस्थित जीवन व्यतीत नहीं कर सकता।


(8) शिक्षा मार्गदर्शन करती है- शिक्षा का उद्देश्य बच्चों की योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों तथा शक्तियों का मार्गदर्शन करना है। समाज, स्थान तथा समाज की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा व्यक्ति का मार्गदर्शन करती है। मार्गदर्शन करते समय शिक्षक को उसका ठीक प्रकार से ज्ञान होना चाहिए। बच्चे के ऊपर किसी प्रकार का अनावश्यक दबाव नहीं डालना चाहिए। 


(9) शिक्षा अभिवृद्धि है - शिक्षा बच्चों की अभिवृद्धि की ओर ध्यान देती है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा प्रत्येक क्षेत्र में विकास की आवश्यकता है। यह कार्य केवल व्यक्ति कर सकता है जो स्वयं परिपक्व तथा विकसित हो, शिक्षा के कार्य में लगा व्यक्ति बच्चे की अभिवृद्धि की ओर ध्यान देता है।


बच्चे को निर्देशन इस प्रकार दिया जाना चाहिए कि उनके व्यक्तिगत गुणों तथा सामाजिक सम्बन्धों का विकास हो। उनकी अभिवृद्धि जीवन के उचित मूल्यों, उद्देश्यों लक्ष्यों, आकांक्षाओं तथा महानता की दिशा में होनी चाहिए। ऐसी अभिवृद्धि तब ही सम्भव है जब बालक के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का समान रूप से विकास किया जाए।


(10) शिक्षा आधुनिक युग की मांग है- आधुनिक युग विज्ञान का युग है। कोई भी व्यक्ति विज्ञान की उन्नति से अछूता नहीं है।

जब हम तकनीकी क्षेत्र के विकास की बात करते हैं, तब शिक्षा की आवश्यकता प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ती है।


राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का विकास करने में भी शिक्षा अनेक प्रकार से सहायता करती है। यही कारण है कि आज हम प्रौढ़-शिक्षा, जनसंख्या-शिक्षा तथा समाज-शिक्षा आदि पर बल देते हैं। इस प्रकार शिक्षा का अर्थ बहुत व्यापक है और यह मानव जीवन के प्रत्येक पहलू से सम्बन्ध रखती है तथा उस पर प्रभाव डालती है।


आशा करता हूँ उपरोक्त विश्लेषण से आप समझ गए होंगे कि शिक्षा क्या है, शिक्षा का अर्थ क्या है और शिक्षा किसे कहते हैं या इसकी परिभाषा क्या है।


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